INTO THIN AIR: A PERSONAL ACCOUNT OF THE EVEREST DISASTER in Hindi
इंट्रोडक्शन
आपको क्या लगता है, माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई करना कितनी ईज़ी होगा? दुनिया की ये सबसे ऊँची चोटी सदियों से इन्सान को अपनी तरफ अट्रेक्ट करती आई है और चेलेंज भी देती आई है. लेकिन क्या आप जानते है कि इस ताकतवर और बेहद मुश्किल चढाई वाले पहाड़ की चोटी तक पहुँचने में हर चौथे आदमी की जान चली जाती है!
” इनटू थिन एयर” ऑथर जॉन क्रैकावर की पर्सनल अकाउंट पर बेस्ड एक सच्ची घटना है जो उनके साथ तब घटी थी जब 1996 के माउंट एवरेस्ट चढ़ाई के दौरान जॉन पहाड़ से गिरते हुए बर्फ़ के ढेर के बीच फंस गए थे और किसी तरह अपनी जान बचा पाए थे. ये बुक एक बेस्ट सेलर है जिसमे जॉन ने 1996 के उस हादसे के बारे में काफी डिटेल से जानकारी दी है. उन्होंने उन आठ लोगों के बारे में भी लिखा है जो बदकिस्मती से मौत का शिकार हो गए थे.
जॉन एक प्रोफेशनल जर्नलिस्ट है जिन्हें उनकी मैं गजीन आउटलुक की तरफ से माउंट एवरेस्ट के कमर्शियलाईज़ेशन के बारे में आर्टिकल लिखने के मकसद से भेजा गया था पर ये कोई नहीं जानता था कि उनके और उनकी टीम के साथ ऐसा दर्दनाक हादसा हो जायेगा. इस समरी में आप उन बहादुर पहाड़ चढ़ने वालों की कहानी जानेंगे जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर rescue मिशन को अंजाम दिया और उन लोगों के बारे में भी जिन्होंने अपने साथियों की जान बचातेहुए खुद अपनी जान गंवा दी. ये बुक रेस अगेंस्ट टाइम की कहानी सुनाती है जहाँ पहाड़ चढ़ने वाले यानी climbers ऑक्सीजन की कमी के चलते एक-एक सांस के लिए स्ट्रगल करने को मजबूर थे.
Everest Summit
May 10, 1996 • 29,028 Feet
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने का मेरा हमेशा सपना रहा था. ये एक ऐसा पल था जिसका मैं बचपन से इंतजार कर रहा था और ये बड़ी इंट्रेस्टिंग सी बात है कि जब आखिरकार मैं दुनिया की सबसे ऊँची चोटी पर पंहुचा और अपने सामने वो नज़ारा देखा जो मैं हमेशा से देखना चाहता था, उस वक्त मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने जिंदगी में सब कुछ पा लिया है.
ऐसा सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि हर उस climber को महसूस हो रहा था जो पहली बार माउंट एवरेस्ट के पीक पर आया था क्योंकि ऊपर चोटी तक पहुँचने के बाद भी अभी सफर खत्म नहीं हुआ था. हमारी लड़ाई वक्त के साथ थी क्योंकि इससे पहले कि हमारी बॉडी हमारा साथ छोड़ दे, हमे हर हाल में बेस कैंप पहुंचना था. ये 10 मई, 1996 की बात थी. मैं पिछले 57 घंटों से सोया नहीं था. मैंने खाना भी लगभग ना के बराबर खाया था और ऊपर से खांसी के मारे मेरा बुरा हाल था. हाई ऑल्टीट्यूड होने की वजह से ऊपर ऑक्सीजन का लेवल बेहद कम था और ऑक्सीजन की कमी के चलते मेरी मेंटल पॉवर कमज़ोर हो चुकी थी. सिवाए ठंड और बेहोशी के मुझे कुछ और महसूस नहीं हो रहा था. उस वक्त माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई करने के पीछे दो मिशन थे, एक अमेरिकन कमर्शियल के लिए था और दूसरी न्यूज़ीलैंड बेस्ड टीम था जिसमें मैं भी शामिल था.
मैं एवरेस्ट की चोटी पर रशियन गाईड अनातोली बुक्रीव (Anatoli Boukreev)के कुछ मिनट बाद ही पहुंचा था जोकि अमेरिकन टीम के साथ आया था. वैसे मैं न्यूज़ीलैंड बेस्ड टीम के गाईड एंडी हैरिस से आगे चल रहा था. सुनने में थोडा अजीब लगता है पर दुनिया की सबसे ऊँची चोटी पर मैंने सिर्फ 5 मिनट गुज़ारे. इस दिन, इस पल का मुझे इतने लम्बे वक्त से इंतज़ार था और जब आखिर वो पल आया तो मैं पांच मिनट से ज्यादा नहीं रुक पाया.
ऑक्सीजन की भारी कमी के चलते चोटी पर ज्यादा देर ना रुकने की सलाह दी जाती है क्योंकि ये काफी रिस्की होता है, यहाँ इन्सान बेहोश हो सकता है और उसकी बॉडी काम करना बंद कर देती है. इसलिए आप जितना ज्यादा ऊपर रुकेंगे, जिंदा बचने के चांसेस उतने ही कम होंगे. आज लोग उस मिशन के बारे में सोचते है तो उन्हें बादलो से ढका आसमान और वो खतरनाक तूफानी मौसम याद आता है. तूफ़ान इस हद तक खतरनाक था कि छह डेड बॉडी मिलने के बाद रेस्क्यू टीम दो और लापता लोगों की तलाश में नहीं जा पाई थी, और एक बंदे को अपना हाथ गंवाना पड़ा, लोग ये सोचकर हैरान थे कि ऐसे तूफ़ान में आखिर वो आगे बढ़ ही क्यों रहे है?
इस हादसे में ग्रुप्स के लीडर्स दोनों गाईड की भी मौत हो चुकी थी इसलिए वो उन सवालों का जवाब नहीं दे सकते. लेकिन मैं आपको बताता हूँ कि 10 मई की वो सुबह एकदम शांत थी. चोटी से नीचे उतरते हुए काफी कुछ बदल जाता है. सच कहूं तो उस वक्त मुझे मौसम की ज़रा भी परवाह नहीं थी. मेरे मन में तो सिर्फ मेरा ऑक्सीजन टैंक था, ऑक्सीजन ऑलमोस्ट खत्म होने को था और मुझे हर हाल में जल्द से जल्द कैंप तक पहुँचना था. मैं 15 मिनट तक नीचे की तरफ आता रहा और हिलरी स्टेप तक पहुंचा. हिलरी स्टेप माउंट एवरेस्ट का वो रिज (ऊँचा उठा हुआ तंग रास्ता) है जिसकी चढ़ाई बेहद मुश्किल होती है और सिर्फ रस्सियों की मदद से ही इस पर चढ़ा जा सकता है. लेकिन मैंने हिलरी स्टेप पर जो देखा, वो खौफनाक था.
मैंने करीब एक दर्ज़न लोगों को कतार में खड़े देखा जो चढाई के इंतज़ार में थे. ये बेहद रिस्की सिचुएशन थी क्योंकि उन्हें चढने में ज्यादा वक्त लगता जिससे उनके ऑक्सीजन टैंक जल्दी खत्म हो सकते थे और ट्रेफिक जाम उन तीन मिशन की वजह से लगा था जो एवरेस्ट पर आये थे. उनमे से एक टीम मेरी भी थी जिसका लीडर था रॉब हॉल. सेकंड टीम का लीडर स्कॉट फिशर था और तीसरी टीम एक ताईवान की टीम थी. जब मैं उस भीड़ के बीच से गुजर रहा था तो मुझे रॉब हॉल और अपनी टीम का एक और मेंबर यासुको नम्बा मिले. नम्बा 47 साल की थी और अब तक कि सबसे बड़ी उम्र की औरत थी जो माउंट एवरेस्ट की चढाई करने जा रही थी. वो अब तक 6 continent के 6 पहाड़ की चोटियों पर चढ़ चुकी थी और अब ये उसका साँतवी छोटी थी.
कुछ देर बाद हमारी टीम का एक और मेंबर पहुंचा, डग हैंसन और फाईनली लाइन के एंड में न्यूजीलैंड टीम का लीडर था स्कॉट फिशर. जिस वक्त मैं माउंटेन की एक छोटी पीक साउथ समिट तक पहुंचा उस वक्त तीन बज रहे थे. मौसम मुझे अभी से गडबड नजर आ रहा था. मैंने एक और ऑक्सीजन सिलिंडर लगा लिया था और अब थोडा और नीचे की तरफ आ गया था. इस वक्त तक हमे आने वाले खतरे का जरा भी अंदाज़ा नहीं था. अब तक किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक-एक पल हम पर भारी पड़ने वाला है और हमारे सामने जिंदगी और मौत का सवाल खड़ा हो जायेगा.